Tuesday, August 6, 2013

कश्मकश

जब भी कभी कुछ लिखने बैठती हूँ,

सच मानोगे तुम्हे बहुत सोचती हूँ,

तुम्हारी कही अनकही बातें कई कई बार सुनती हूँ,

चलते हुए टीवी, बजते हुए गानों और 

अड़ोस पड़ोस के शोर गुल के बीच.… एकदम साफ़

तुम्हारी मुस्कान महकने लगती है 

मेरे टेबल पर रखे फूलदान में लगे ताज़ा फूलों के संग.…. 

तुम्हारी हंसी खनक उठती है 

दरवाज़े की घंटी, सब्ज़ी की छौंक, बहते हुए नल के साथ.… 

और आज जो लेखनी उठाई तो 

एक भी शब्द सूझता नहीं,

एक पंक्ति लिख रही हूँ चार काट देती हूँ

ना ही कुछ खोने की ना ही कुछ पाने की 

आज  मन में कोई व्याकुलता भी  नहीं है,

शायद प्रेम की अतिवृष्टि में 

भावनाएं सूख जाती हैं,

दिनभर के ताने बानो में अक्सर 

कविता रूठ जाती है.…

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