Sunday, August 25, 2013

संहार



आज जो कहा तुमने कि तुम मरते हो मुझपर,
कितना आसान कर दिया तुमने सबकुछ,
मेरे लिए.....
तुम मरना चाहते हो, मरोगे,
मेरे साथ, मेरे ही हाथों....
क्योंकि जिसने भी मुझसे प्यार किया है,
वो ऐसे ही तो मरा है,
मुझपर, मेरे साथ, मेरे हाथों,
मुझे घिन सी होती है इन रूमानी बातों से,
उबकाई आती है मुझे इन सारे कसमों वादों से,
कोफ़्त होती है चाँद, तारों, बहारों की रंगीनीयों मे,
फिर ये जो एहसान जताना पड़ता है,
इन सब के बदले,
वो हँसता है मुझपर तुम्हारे पीछे से,
तुम मेरा जिस्म खरीद पाते हो बस इसलिए,
क्योंकि मैं बेचती हूँ इसे,
लेकिन इसे बेचने के बाद मंदिर नहीं जाती,
न ही उन पैसों को गरीबों मे बाँट आती हूँ,
पश्चाताप के लिए.....
कहीं कोने मे एक गठरी की तरह
ठूँसी भी नहीं जाती पोटली बना कर,
सीता या सावित्री नहीं हूँ मैं,
न ही वो हूँ जो तुम्हें भेड़िया कह कर,
थोप दूँ तुमपर अपना कारोबार अपनी मजबूरियाँ बता कर,
कोई अफसोस थोड़े है मुझे कि मैं अपना जिस्म बेचती हूँ,
मुझे तो खुशी होती है जब तुम मेरे
इशारों पर आखेँ बंद कर के नाचते हो,
प्यार नहीं ये सब बस सत्ता और ताकत का खेल ही है,
और तुम्हारा गिड्गिड़ना मुझे सुकून देता है,
क्योंकि बिकती भले ही मैं हूँ,
पर खत्म तो तुम ही होते हो न,
हर बार...
मर ही मिटते हो मुझपर,
मेरे साथ, फिर मेरे ही हाथों......
  


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