Thursday, November 14, 2013

अनजाने मे

जब भी कहीं, कुछ सोचते हुए,
बैठे, बतियाते किसी कागज़ पर मैं
यूं ही आड़े तिरछे कुछ चित्र उकेर देती हूँ,
किसी बात की गहराई में खोयी,
उन चित्रों को बड़ी आत्मीयता से कई कई बार
अनगिनत लाइनों से मोटा कर,
उनमें काले या नीले पेन से कोई,
नया रंग भर देती हूँ,
तो अपनी सोच से वापस आकर,
अनजाने मे ही सही लेकिन हर बार,
बड़ी गहराई से ये जांच लेती हूँ,
कि कहीं उस चित्र का एक भी हिस्सा,
इत्तेफ़ाक़ से ही सही,
किसी ऐसे अक्षर से मिलता जुलता तो नहीं,
जो तुम्हारे नाम में किसी भी तरह
आता जाता है.........