Monday, June 30, 2014

एक और कविता फिर तुमपर....

एक और कविता फिर तुमपर....
तुम्हारी दोहरी भौंहों पर,
तुम्हारी गहरी आँखों पर,
तुम्हारी शरारती मगर सहमी मुस्कान पर,
तुम्हारे फ़र्जी इतराने पर....
मगर इन सब से बढ़कर कहीं,
उन टेढ़े  मेढ़े से हजारों लाखों लम्हों पर,
जो हमने साथ गुज़ारे थे....
कुछ तो उतर गए मेरे भीतर, परत दर परत,
और कुछ इन पन्नों की छन्नी से छनकर,
बिखर गए कविता बनकर....
और हर बार की तरह ही
सारी दुनिया पढ़ेगी ये कविता मेरी,
एक बस तुमको छोड़कर...
क्योंकि जिसके लिए लिखी गयी कविता,
अगर उसे ही पढ़ा दी
तो बात कुछ ऐसी होगी मानो,
नमक के डब्बे मे चीनी का लेबल चिपका कर,
उसमे चीनी ही भर दी गयी हो...
न कोई अकस्मात से हादसे,
न ही चाय मे दो चम्मच भर डालने के बाद होती धुक धुक,
न कोई रोमांच, न ही खारे हुए से चेहरे
सब कुछ बिलकुल वैसा ही जैसा मालूम पड़े, दिखाई पड़े....
मगर पेट्रोल के खाली डब्बे मे भरे सादे पानी जैसे तुम,
इसलिए....
एक और कविता फिर तुमपर......

photo from google

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